Wednesday, July 1, 2009

फिर गोरों ने माना बापू का लोहा

भारत की स्वंत्रतता और दुनिया को अंहिसा का संदेश देने वाले बापू चर्चा में हैं। जी हां, वही सत्य और अहिंसा जिसके बदौलत बापू ने दुनिया के कई देशों को आजादी का मूलमंत्र दिया था। अग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए मजबूर किया था। जो गोरे, बापू को फकीर कहा करते थे, आज वही बापू का गुणगान कर रहे हैं। चाहे वह लंदन के मेट्रो में गुंजने वाली बापू का विचार ही क्यों न हो। अभी हाल में ही लंदन के मेट्रो ने बापू के विचार ''ऑख के बदले ऑख मांगोगे तो सारी दुनिया अंधी हो जाएगी'' को शामिल किया है। अब यह विचार मेट्रो ट्रेन में सफर करने वाले सारे यात्रियों को सुनने को मिलेगा। ये उसी बापू के विचार हैं, जिन्हें कभी अंग्रेज चलती ट्रेन से फेंक दिया था। खैर, देर से ही सही आखिरकार बापू के विचार से पूरी दुनिया सहमत तो हुई। अभी हाल में ही अमेरिकी कांग्रेस के कुछ सदस्यों ने बापू की 140 वीं जयंती को मनाने के लिए एक प्रस्ताव प्रतिनिधि सभा में पेश किया है। जिसमें कहा गया है कि चूंकि बापू का नाम दुनियाभर में स्वतंत्रता और न्याय का प्रतीक है, लिहाज़ा उनकी जयंती यहां मनाई जानी चाहिए। कांग्रेस के छह सदस्यों ने भारत के राष्ट्रपिता की 140वीं जयंती मनाने के लिए प्रतिनिधि सभा में एक प्रस्ताव पेश किया है। जिसमें कहा गया है कि महात्मा गांधी का नेतृत्व में दूरदृष्टि थी। जिसकी वजह से विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका और विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के बीच मित्रता तेजी से मजबूत हुई।ये प्रस्ताव फ्लोरिडा की कांग्रेस सदस्य इलीना रॉस लेहटीनेन ने पेश किया है इसके अलावा ईड रॉयसे, जिम मैक्डेर्मट, जो विल्सन, गुस बिलिरकिस और डोन मैंजुलो ने भी इसपर सहमति जताई है। इस प्रस्ताव में कहा गया है कि भारत देश और इसकी लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्थापना में महात्मा गांधी की अद्वितीय और चिर स्थाई भूमिका है जो आने वाली पीढि़यों के लिए प्रेरणा देने वाली है। हालांकि बीते कुछ समयों में बापू भारत में महज किताबों और लेखों का विषय रह गए हैं, पर, बापू के सिद्धांत और विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। भारत की बदली तस्वीर में गांधीवाद भले कहीं दिखता न हो पर अमेरिका के सांसदों की पहल ये समझाने की कोशिश कर रही है कि गांधी ही आज की बदसूरत होती दुनिया की तस्वीर बदल सकते हैं। बशर्ते उनके विचारों को ज़मीन मिले।

Saturday, June 27, 2009

बेनजीर भूट्टो हत्याकांड में खुलासा

बेनजीर भुट्टो की हत्या के मामले में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के अध्यक्ष बिलावल भुट्टो जरदारी ने सीधे-सीधे मुशर्रफ पर निशाना साधा है...। बिलावल ने कहा है कि उनकी मां और पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की हत्या करने के लिए आतंकियों ने भले ही बंदूक का घोड़ा दबाया था लेकिन इस बंदूक में गोली तबकी तानाशाह ने भरी थी...। पीपीपी के अध्यक्ष ने कहा कि उनकी मां ऐसे हर पाकिस्तानी के दिल में मौजूद है जो लोकतांत्रिक पाकिस्तान में आस्था रखता है...। भुट्टो के हत्यारों का पर्दाफाश करने का संकल्प जताते हुए उन्होंने कहा कि इस मामले में संयुक्त राष्ट्र की जांच जारी है...। उन्होंने कहा कि इस हत्या की साजिश रचने वाले, धन मुहैया कराने और इस पर पर्दा डालने वालों का खुलासा हर हाल में होगा...। इससे पहले शनिवार को संयुक्त राष्ट्र ने बेनजीर भुट्टो की हत्या की जांच के लिए तीन सदस्यीय आयोग का गठन किया है....। जो एक जुलाई से जांच शुरू करेगा...। जबकि शुक्रवार को ही तहरीके तालिबान के मुखिया बैतुल्ला महसूद के एक साथी ने जियो टीवी में इंटरव्यू के दौरान कहा था कि बेनजीर की हत्या की साजिश बैतुल्लाह महसूद ने रची थी...। इस बीच पाकिस्तान की राजनीति में सक्रिय भूमिका को लेकर बिलावल ने कहा कि पढ़ाई पूरी करने के बाद ही वो सक्रिय राजनीति में हिस्सा लेंगे...। इन दिनों विलावल ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से इतिहास में स्नातक की पढ़ाई कर रहे हैं...। बेनजीर के बेटे विलावल का कहना है कि पीपीपी को संकटग्रस्त पाकिस्तान मिला था जो आर्थिक संकट के कगार पर खड़ा था लेकिन पीपीपी देश को बचाया...। भारत के साथ संबंधों को लेकर बिलावल ने कहा कि उनकी सरकार पड़ोसी देशों के साथ शांति बनाने की कोशिश की...।

Sunday, April 26, 2009

श्रीलंका में राजनीतिक समाधान

यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि श्रीलंका की सेना लिट्टे के खिलाफ प्रत्यक्ष युद्ध में जीत के काफी करीब है। श्रीलंका के इस विजय अभियान की शुरुआत उसी समय हो गई थी, जब पिछले साल सेना ने लिट्टे की राजनीतिक राजधानी किलिनोच्चि पर कब्जा किया था। उसके बाद धीरे-धीरे साफ होने लगा था कि देरसबेर लिट्टे के नियंत्रण वाले सभी क्षेत्रों पर सेना कब्जा कर लेगी। वैसे तो महेंद्र राजपक्षे ने पिछले साल तीन जनवरी को 2002 से जारी युद्धविराम के केवल औपचारिक अंत की ही घोषणा की थी, यथार्थ में युद्ध विराम का दोनों पक्षों ने ईमानदारी से कभी पालन नहीं किया। 2006 के उत्तरार्ध से दोनों के बीच युद्ध चल रहा था और 2007 का अंत आते-आते यह काफी सघन हो गया था। असल में नार्वे की मध्यस्थता में घोषित युद्धविराम का इस्तेमाल दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी ताकत बढ़ाने के रूप में किया। राजपक्षे हर हाल में लिट्टे के दमन का निश्चय कर चुके थे और इसमें उन्होंने किसी की परवाह नहीं की।
भारत ने जब-जब राजपक्षे से तमिल समस्या के राजनीतिक समाधान की बात की, तो उन्होंने इसके प्रति सहमति अवश्य जताई, लेकिन 2006 में शक्ति हस्तांतरण के मसले पर एक सर्वदलीय समिति के गठन के अलावा ठोस रूप में और कुछ नहीं किया। अगर वह चाहते, तो सैनिक विजय के साथ वे अब तक तमिलों की पुरानी मांगों के अनुरूप उत्तर पूर्व क्षेत्र को स्वायत्तता देकर उन्हें सिंहलियों के समान नागरिक अधिकार भी प्रदान कर चुके होते। जब विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी इस साल 29 जनवरी को श्रीलंका के दौरे पर गए थे, तब भी राजपक्षे ने उनसे शीघ्र राजनीतिक पैकेज की घोषणा का वादा किया था। राजपक्षे ने 30 दिसंबर को (जब किलिनोच्चि का युद्ध चरम पर था) कोलंबो स्थित भारतीय पत्रकारों से बातचीत में कहा कि तमिल टाइगरों के अंत के बाद वे उत्तरी क्षेत्र में लोकतांत्रिक प्रक्रिया की शुरुआत के लिए 2009 में चुनाव आयोजित कराएंगे। आश्चर्य की बात है कि भारत के विदेश मंत्रालय ने तमिल टाइगरों के अंत संबंधी उनके शब्दों पर गौर क्यों नहीं किया। यह बात बिल्कुल साफ है कि मौजूदा राजनीतिक ढांचे में चुनाव से तमिलों की स्थिति में बदलाव नहीं आ सकता। टाइगरों के बीच फूट का लाभ उठाकर राजपक्षे ने पूर्वी क्षेत्र में चुनाव करवा लिया, लेकिन उससे ज्यादा बदलाव नहीं आया है। तमिल-बहुल क्षेत्र को स्वायत्तता और उन्हें सिंहलियों के समान अधिकार दिलाने के लिए जितने व्यापक राजनीतिक बदलावों की जरूरत है, उसके लिए वह न पहले तैयार थे और अब लिट्टे अंत के बाद तो वह शायद ही तैयार होंगे। वस्तुत: राजपक्षे भारत के सामने तो तमिल समस्या के राजनीतिक समाधान का वादा करते रहे, लेकिन श्रीलंका के भीतर वे श्रीलंकाई राष्ट्रवाद की बात करते हैं। उन्होंने किलिनोच्चि विजय पर राष्ट्रपति सचिवालय में एक आयोजन को संबोधित करते हुए कहा था कि वह दिन दूर नहीं है जब श्रीलंका के लोगों का एक झंडे तले रहने का सपना साकार होगा। सिंहल राष्ट्रवाद उनके भाषण का मूल स्वर हो चुका है। सेना भी यही भाषा बोलती है। टाइगरों की शक्ति का मूल्यांकन करके सेना का विशेष कार्यबल गठित हुआ, जिसका एकमात्र लक्ष्य ही तमिल टाइगरों का समूल नाश था। यही नहीं, श्रीलंका में जिसने भी तमिल समस्या के राजनीतिक समाधान की मांग की या निष्ठुर सैनिक नीति की आलोचना की, उसका हर तरीके से मुंह बंद कराने की कोशिश हुई। वहां ऐसे अनेक लोगों की संदिग्ध मौत हुई है, जिन्होंने सरकार की नीतियों का विरोध किया। भारत की ओर से आवाज उठाने के बाद यह बयान आया कि राजपक्षे उस 13वें संशोधन को प्राथमिक कदम के रूप में अमल में लाने को तैयार हैं जो 1987 के राजीव गांधी-जयवर्धने समझौता का मुख्य अंग था। यह भारत को शांत रखने की रणनीति के अलावा कुछ नहीं था। बेशक, राजीव गांधी की हत्या में लिट्टे और प्रभाकरन का हाथ साबित हो जाने के बाद भारत उसका पक्ष नहीं ले सकता, पर इस पहलू का श्रीलंका ने अनुचित लाभ उठाया है। प्रभाकरन के खिलाफ अभियान को संतुलित करने के लिए राजपक्षे को राजनीतिक पैकेज का ऐलान करना चाहिए था। भारत ने जनवरी में यही तो कहा था कि श्रीलंका सरकार सैनिक विजय को राजनीतिक समाधान के पैकेज से सुदृढ़ करे। भारत ने युद्ध से जर्जर हो चुके उन क्षेत्रों के पुनर्निर्माण में हर संभव सहायता की भी पेशकश की। अब जबकि राजपक्षे की नीति साफ हो चुकी है, भारत को अपनी श्रीलंका नीति में बदलाव करना ही होगा। ध्यान रहे कि यह केवल तमिलनाडु के आंतरिक राजनीतिक समीकरणों से जुड़ा संकुचित मामला नहीं है। तमिलनाडु की राजनीति में भी श्रीलंका उबाल का कारण इसीलिए बना है, क्योंकि वहां तमिल युद्ध के सर्वाधिक शिकार हो रहे हैं। उनकी सालों पुरानी न्याय की मांग भी पूरी नहीं हो रही है। भारत तमिल समस्या से सीधे जुड़ा है, इसलिए उस से आंखें मूंदे नहीं रह सकता। गृह मंत्री पी. चिदम्बरम का यह कहना बिल्कुल सही है कि आज की स्थिति के लिए श्रीलंका सरकार ज्यादा दोषी है। लिट्टे पैदा इसीलिए हुआ, क्योंकि तमिल सिंहलियों द्वारा जारी नस्लवाद का शिकार हो रहे थे। वहां आज तक तमिलों की स्थिति दोयम दर्जे की बनी हुई है। अपने अंतिम समय में अत्यंत कम संख्या होने के बावजूद श्रीलंकाई सैनिकों से संघर्ष करना साधारण बात नहीं है। इस समय राजपक्षे विजय के गर्व से आह्लादित हो सकते हैं, उन्हें आगामी चुनाव में भी सिंहल राष्ट्रवाद का पूरा लाभ मिल सकता है। किंतु वे यह न भूलें कि तमिलों की न्यायसंगत मांगें पूरी न करने का दुष्परिणाम श्रीलंका को आगे पुन: झेलना होगा। उनका विद्रोह दूसरे रूप में सामने आ सकता है। अपने क्षेत्र से उखाड़े जाने के बाद लिट्टे के बचे विदोही ही गुरिल्ला युद्ध का रास्ता अपना सकते हैं। भारत के सामने कारगर हस्तक्षेप का ही एकमात्र विकल्प बचा हुआ है। भारत केवल राहत पैकेज तक ही खुद को सीमित न रखे। वह श्रीलंका पर राजनीतिक समाधान का पूरा दबाव बनाए। वैसे राजपक्षे को भी इतनी समझ होनी चाहिए कि केवल तात्कालिक सैनिक विजय से उनके देश में शांति स्थापित नहीं हो सकती। जब तक एक बड़ा वर्ग नस्लीय भेदभाव का शिकार रहेगा, तब तक स्थायी शांति का प्रश्न ही पैदा नहीं होगा।