रजौरी में LIVE मुठभेड़
एक तरफ पूरा देश आजादी के जश्न में डूबी थी.. तो दूसरी ओर सीमा के प्रहरी देश को सुरक्षित बनाने के लिए आतंकियों से दो-दो हाथ करने में लगे थे.. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह लाल किला के प्राचीर पर तिरंगा फहरा रहे थे..तो वहीं जम्मू कश्मीर के रजौरी में सेना के जवानों और आतंकियों के बीच मुठभेड़ चल रही थी.. हर चैनल पर आजादी के मौके पर लाल किले से प्रधानमंत्री का दिया गया भाषण चल रहा था.. और इससे ज्यादा हुआ तो फिल्मों में आजादी और फिल्मों का सफर दिखाया जा रहा था.. किसी चैनल ने ये जहमत उठाने की कोशिश नहीं की..आखिरकार जिस स्वतंत्रता पर हमलोग जश्न मना रहे हैं उस स्वतंत्रता को बचाने वाले हमारे वीर आतंकियों से लड़ रहे थे.. खैर जो भी हो हम तो भारत मां के इन सपूतों को सलाम करते हैं.. जिसने स्वतंत्रता दिवस के दौरान खलल डालने आए आतंकियों को जान पर खेल कर मार गिराया...
बेबाक बात
बिना किसी पक्षपात के अपनी बातों को रखता हूं...
Sunday, August 15, 2010
Tuesday, July 27, 2010
बिहार में तालिबान !
असली तालिबान |
बिहार में तालिबान |
ये दो अलग-अलग तस्वीरें हैं.. और दोनों तस्वीरें जहां कि है वो एक-दूसरे से हजारो किलोमीटर की दूरी पर है.. लेकिन दोनों का व्यवहार एक समान है.. एक अफगानिस्तान की है जहां धर्म के नाम शासन करने वाला तालिबानी गुनाहों की सजा दे रहा है.. वहीं दूसरी तस्वीर भारत के बिहार के वैशाली की है.. जहां से पहली बार दुनिया में शांति का संदेश दिया गया था.. जी हां, वही वैशाली जिसे गणतंत्र की उदय के लिए जाना जाता है... वही वैशाली जिसे महावीर, बुद्ध,अशोक के लिए जाना जाता है... इसी वैशाली की गौरव गाथा को ध्यान में रखते हुए आजाद भारत ने अपना राष्ट्रीय चिन्ह अशोक चक्र भी वैशाली से लिया था... अगर वैशाली की पृष्ठभूमि के बारे में लिखा जाय तो शायद कई बर्षों और कई पन्नों में भी उसकी गौरव गाथा को समेटा नहीं जा सकता है.. लेकिन पिछले कुछ समय से एक बार फिर वैशाली चर्चा में है.. लेकिन इस बार कोई गौरव गाथा नहीं, बल्कि चर्चा में है मानवता औऱ इंसानियत को शर्मसार करने के कारण.. कुछ दिन पहले यानी आज से कुछ तीन साल पहले 2007 की घटना है जब वैशाली के राजापाकड़ में ग्रामीणों ने चोरी के आरोप में पीट-पीट कर 11 लोगों की हत्या कर दी थी.. आज तीन साल बाद वैशाली में हैवानियत की हद पार करने वाली एक घटना सामने आई.. हरकत ऐसी कि तालिबान भी शर्मा जाए … वो तालिबान जिसके कारनामे से शैतान भी थर्राता है.. वैशाली के चेहराकलां प्रखंड के मंसूरपुर हलैया गांव के रहने वाले 15 साल के राजेश को छेड़खानी के आरोप में जेडीयू नेता और मुखिया संगीता देवी के पति ने जबरन घर से खींचकर गांव के बीचोबीच लाया। ग्रामीणों के बीच उसे नंगा कर दिया। दोनों पैर बांधकर उल्टा टांग दिया, फिर लाठी की बौछार करने लगा। मुखिया पति शंभू शरण राय ने दोनों हाथों से एक के बाद एक कई लाठियां बरसाई.. और राजेश कराहता रहा.. इतना ही नहीं जब उसका मन इससे भी नहीं भरा तो वो बीच बीच में राजेश से जमीन पर थूक भी चटवाता था.. और सैंकड़ों की जमात में बैठे ग्रामीण तमाशबीन बनकर देखते रहे.. किसी ने भी इस क्रुरता का विरोध करने की जहमत नहीं उठायी.. इतनी बड़ी घटना के बारे में पुलिस प्रशासन को भी कोई खबर नहीं मिली.. लेकिन जब एक साथ सभी न्यूज़ चैनलों पर बिहार में तालिबान के नाम से इस वीडियो को दिखाया जाने लगा .. तब जाकर प्रशासन की नींद खुली औऱ अधमरे राजेश को अस्पताल पहुंचाया गया.. संयोगवश इस वीडियो को बिहार के हुक्मरान भी देखे .. चुनावी साल है और विपक्ष इसका फायदा नहीं उठा सके.. क्योंकि तालिबानी फरमान सुनाने वाला भी उन्हीं के पार्टी का नेता है.. इसलिए सबसे पहले उसे पार्टी से निकाला गया औऱ बाद में सूबे के डीजीपी को निर्देश दिया गया.. लेकिन सवाल ये उठता है कि अगर ऐसी खबर मीडिया के सामने नहीं आती.. तो क्या प्रशासन को इसकी खबर लगती.. राजेश को न्याय मिल पाता.. इन सबों के बीच एक बड़ा सवाल ये है कि क्या तालिबान हमसब के बीच में है.. नहीं तो हजारों किलोमीटर दूर घटने वाली घटना भी हमारे यहां कैसे घटता है.. इस घटना से तो कहा जा सकता है कि तालिबान कोई संगठन नहीं बल्कि मानसिकता है.. और इस मानसिकता को जड़ से खत्म करने के लिए आमलोग,मीडिया और सरकार सामने आना पड़ेगा.. नहीं तो हम फिर से इतिहास के उस अंधयुग में चले जाएंगे.. जहां कानून का शासन नहीं बल्कि हम्बूराबी संहिता से शासन चलती है
Sunday, July 11, 2010
शरद जी, शुक्र मनाइये न्यूज चैनल पटरी पर नहीं हैं
पुण्य प्रसून बाजपेयी , वरिष्ठ पत्रकार
भारत बंद के दिन लालकृष्ण आडवाणी घर से नहीं निकले। लेकिन अगले दिन बंद को सफल बताने के लिये घर पर कार्यकर्ताओं को बुलाकर बंद को सफल बनाने के लिये भाषण देकर उनकी पीठ जरुर ठोंकी। आडवाणी के करीबियों ने न्यूज चैनलों में अपने खासम-खास को यह कहकर कवर करने का न्यौता दिया कि यह आपके लिये एक्सक्लूसिव है। भारत बंद के एक दिन पहले दिल्ली से लेकर पटना तक एनडीए का हर नेता न्यूज चैनलों के रिपोर्टरों से पूछ रहा था आप कब कहाँ पहुँचकर बंद को कवर करेंगे। वक्त बताइये तो हम भी वहाँ उसी वक्त पहुँच जायें। कुछ नेताओं ने अपना वक्त और जगह पहले ही रिपोर्टरों को बताया, जिससे उनके आंदोलन की छवि न्यूज चैनलों के जरिये घर-घर पहुँचे। यानी मंहगाई को लेकर न्यूज चैनलों और नेताओं के बीच सहमति की एक महीन लकीर खींची जा चुकी थी कि बंद का प्रोपगेंडा कैसे नेताओं और भीड़ के जरिये होगा।
इसके बावजूद शरद यादव बंद के बाद मीडिया पर यह कहते हुये बिफरे की उस बहस का क्या मतलब है कि बंद से मंहगाई कम नहीं होगी, तो फिर आम लोगों को तकलीफ देकर बंद की जरुरत क्या थी। शरद यादव का दर्द जायज है, क्योंकि बंद तो राजनीतिक व्यायाम सरीखा होता है और यह पाठ उन्होंने लोहिया से लेकर जेपी तक से जाना है। जेपी तो संसदीय राजनीति को मजबूत बनाने के लिये बंद और प्रदर्शन को एक महत्वपूर्ण हथियार मानते थे। वही लोहिया तो जनता को उकसाते थे कि सरकार काम ना करे या सांसद-मंत्री बेकार हो जायें तो पाँच साल इंतजार ना कीजिये। ऐसी राजनीतिक ट्रेनिंग के बाद अगर न्यूज चैनल बंद पर ही बहस खड़ी कर मनोरंजन परोसने लगे, तो शरद यादव को गुस्सा तो आयेगा ही। लेकिन यहाँ सवाल मीडिया का है जिसे खबरों को कवर करने की भी एक ट्रेनिंग मिली है। अगर वही ट्रेनिंग न्यूज चैनलों के जरिये इसी भारत बंद को कवर करने निकल पड़े तो फिर क्या होगा। चूँकि मुद्दा मंहगाई का है तो बात आम लोगों के दर्द और बंद कराने निकले नेताओं की रईसी से शुरु होगी। बीते छह साल में जबसे यूपीए की सरकार है देश में मंहगाई औसतन तीस से पचास फीसदी तक बढ़ी है और इसी दौर में बाबुओं की आय में औसतन इजाफा 12 फीसदी का हुआ है। मजदूर और कामगार स्तर पर मजदूरी में आठ फीसदी का इजाफा हुआ है। मनेरेगा के आने से कामगारो की किल्लत हर राज्य में हुई है जिसकी एवज में देश के नौ फिसदी कामगारो का आय सौ फीसदी तक बढी है और जिसका भार मध्यम तबके पर पचास फीसद तक पड़ा है। वहीं इसी दौर में कॉरपोरेट सेक्टर के मुनाफे या टर्नओवर में औसतन सवा सौ फिसद तक की बढ़ोतरी हुई है।
लेकिन मंहगाई को मुद्दा बनाकर राजनीति साधने निकले राजनेताओं की आय में सौ से दो सौ फीसदी तक का इजाफा हुआ है। खासकर सांसदो की संपत्ति और सरकारी खजाने से मिलने वाली सुविधायें दुगुनी हुई हैं। जितने भी चेहरे बंद के दौरान सड़क पर नजर आये, उन सभी की संपत्ति करोड़ों में है। चाहे वह बीजेपी के अध्यक्ष नितिन गडकरी हों या फिर संसद के दोनों सदनों के विपक्ष के नेता। खुद शरद यादव की भी संपत्ति भी करीब डेढ़ करोड़ की है। जबकि शरद यादव जानते होंगे कि लोहिया की जब मौत हुई तो उनके घर का पता भी कोई नहीं था और जानकारी के लिये बैंक एकाउंट के जरिये पता खोजने की बात हुई तो यह जानकारी मिली की लोहिया का कोई एंकाउंट भी नहीं है। मीडिया को यकीनन यह कवर करना चाहिये था कि आम जनता से कैसे और क्यो नेताओ के सरोकार खत्म हो चले हैं, इसलिये बंद का मतलब सिर्फ राजनीतिक कवायद पर आ टिका है। करोड़पति नेताओं के सामने आम आदमी की औकात क्या है यह सरकार के ही प्रति व्यक्ति आय के आंकड़ों से समझा जा सकता है। क्योंकि बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, बंगाल समेत उत्तर-पूर्व के सभी सातों राज्यों में आज भी प्रति दिन की औसत कमाई 50 रुपये से 80 रुपये के बीच है। लेकिन सासंदो की लॉण्ड्री का औसत प्रतिदिन का खर्चा सौ रुपये से ज्यादा का है। और जो आम आदमी के टैक्स से दिये रुपये से खर्च होता है।
देश के आज जो हालात हैं उसमें न्यूज चैनलों को नेताओं के चमकते-दमकते कपड़ों पर कितने खर्च हुये - यह सवाल भी करना चाहिये। पूछना यह भी चाहिये कि सड़क पर आने से पहले आपने नाश्ता क्या किया और दूध या जूस किस फल का पिया? लेकिन मुश्किल है कि रिपोर्टर यह सवाल पूछने से इसलिये नहीं घबराता है कि नेता गुस्से में आ जायेगा, बल्कि उसका अपना पेट उसी तरह भरा हुआ है। लेकिन जनता से नेता यूँ ही नहीं कटा है। संसद ही आमजन से कैसे दूर है यह इनकी संपत्ती देखकर समझा जा सकता है। राज्यसभा के दो सौ सांसदो की संपत्ति को अगर सभी में बराबर-बराबर बांटा जाये, तो हर के हिस्से में बीस से पच्चीस करोड़ आयेगा और लोकसभा के 545 सांसदो की संपति अगर बराबर बांटी जाये तो हर के हिस्से में पांच से छः करोड़ आयेगा। यहाँ नेता सवाल खड़ा कर सकते हैं कि करोड़पति नेता को आंदोलन करने की इजाजत नहीं है क्या? यकीनन है। और सासंदो की तनख्वाह अस्सी हजार महिनावार हो जाये इस पर सभी सांसद एकजूट भी हैं। फिर भारत बंद को 74 के आंदोलन से जोड़ने की जो जल्दबाजी नेताओं ने दिखायी, वह भी कम हसीन नहीं है। जबकि सड़क पर उतरे सभी नेताओं के जहन में 74 की तस्वीर जरुर होगी। उस वक्त नेताओं की फेरहिस्त में जेबी कृपलानी, मधुलिमये, राजनारायण, कर्पूरी ठाकुर , चरण सिंह , जार्ज फर्नांडिस सरीखे नेता थे। जो खास तौर से संपत्ति और सुविधाओं को लेकर सचेत रहते थे। जिससे आम आदमी को यह महसूस ना हो कि नेता उससे कटा हुआ है। और यह संवाद अक्सर संसद के भीतर नेहरु से लेकर इंदिरा की रईसी पर उंगली उठाकर किया जाता था।लेकिन आम आदमी के बीच सड़क से राजनीति करते हुये सत्ता की अब की राजनीति ही जब मंहगाई जैसे मुद्दे पर ममता बनर्जी, लालू यादव , मायावती और राज ठाकरे को घर में कैद कर देती है, तो यह सवाल उठना जायज है कि भारत बंद राजनीतिक व्यायाम है और मंहगाई एक तफरी का मुद्दा। क्योकि चंद दिनो बाद संसद का मानसून सत्र शुरु होगा और यकीन जानिये सत्र की शुरुआत होते ही मंहगाई के मुद्दे पर संसद ठप कर दी जायेगी। और संसद की कैंटीन में कौड़ियों की कीमत में बिरयानी-चिकनकरी खाकर या एक रुपये में ग्रीन लीफ की शानदार चाय पीकर न्यूज चैनलों के कैमरों के सामने मंहगाई पर आंदोलन के गीत गाये जायेंगे और न्यूज चैनल के संपादक भी इसे ही खबर मानकर दिखायेंगे और न्यूज चैनल होने का धर्म निभायेंगे। इन हालात में तो शरद यादव को खुश होना चाहिये कि अगर राजनीति पटरी से उतरी है तो मीडिया भी पटरी से उतरा है और बीते छह साल में संपादक भी करोड़ों बनाकर मॉडल की मौत की गुत्थी सुलझाने से लेकर धौनी की शादी में खो जाते हैं। क्योंकि मीडिया पटरी पर लौटी तो मुश्किल राजनेताओं को होगी। आईये हम-आप दोनों प्रर्थना करें काश ऐसा हो जाये।
(लेखक के ब्लॉग से साभार)
भारत बंद के दिन लालकृष्ण आडवाणी घर से नहीं निकले। लेकिन अगले दिन बंद को सफल बताने के लिये घर पर कार्यकर्ताओं को बुलाकर बंद को सफल बनाने के लिये भाषण देकर उनकी पीठ जरुर ठोंकी। आडवाणी के करीबियों ने न्यूज चैनलों में अपने खासम-खास को यह कहकर कवर करने का न्यौता दिया कि यह आपके लिये एक्सक्लूसिव है। भारत बंद के एक दिन पहले दिल्ली से लेकर पटना तक एनडीए का हर नेता न्यूज चैनलों के रिपोर्टरों से पूछ रहा था आप कब कहाँ पहुँचकर बंद को कवर करेंगे। वक्त बताइये तो हम भी वहाँ उसी वक्त पहुँच जायें। कुछ नेताओं ने अपना वक्त और जगह पहले ही रिपोर्टरों को बताया, जिससे उनके आंदोलन की छवि न्यूज चैनलों के जरिये घर-घर पहुँचे। यानी मंहगाई को लेकर न्यूज चैनलों और नेताओं के बीच सहमति की एक महीन लकीर खींची जा चुकी थी कि बंद का प्रोपगेंडा कैसे नेताओं और भीड़ के जरिये होगा।
इसके बावजूद शरद यादव बंद के बाद मीडिया पर यह कहते हुये बिफरे की उस बहस का क्या मतलब है कि बंद से मंहगाई कम नहीं होगी, तो फिर आम लोगों को तकलीफ देकर बंद की जरुरत क्या थी। शरद यादव का दर्द जायज है, क्योंकि बंद तो राजनीतिक व्यायाम सरीखा होता है और यह पाठ उन्होंने लोहिया से लेकर जेपी तक से जाना है। जेपी तो संसदीय राजनीति को मजबूत बनाने के लिये बंद और प्रदर्शन को एक महत्वपूर्ण हथियार मानते थे। वही लोहिया तो जनता को उकसाते थे कि सरकार काम ना करे या सांसद-मंत्री बेकार हो जायें तो पाँच साल इंतजार ना कीजिये। ऐसी राजनीतिक ट्रेनिंग के बाद अगर न्यूज चैनल बंद पर ही बहस खड़ी कर मनोरंजन परोसने लगे, तो शरद यादव को गुस्सा तो आयेगा ही। लेकिन यहाँ सवाल मीडिया का है जिसे खबरों को कवर करने की भी एक ट्रेनिंग मिली है। अगर वही ट्रेनिंग न्यूज चैनलों के जरिये इसी भारत बंद को कवर करने निकल पड़े तो फिर क्या होगा। चूँकि मुद्दा मंहगाई का है तो बात आम लोगों के दर्द और बंद कराने निकले नेताओं की रईसी से शुरु होगी। बीते छह साल में जबसे यूपीए की सरकार है देश में मंहगाई औसतन तीस से पचास फीसदी तक बढ़ी है और इसी दौर में बाबुओं की आय में औसतन इजाफा 12 फीसदी का हुआ है। मजदूर और कामगार स्तर पर मजदूरी में आठ फीसदी का इजाफा हुआ है। मनेरेगा के आने से कामगारो की किल्लत हर राज्य में हुई है जिसकी एवज में देश के नौ फिसदी कामगारो का आय सौ फीसदी तक बढी है और जिसका भार मध्यम तबके पर पचास फीसद तक पड़ा है। वहीं इसी दौर में कॉरपोरेट सेक्टर के मुनाफे या टर्नओवर में औसतन सवा सौ फिसद तक की बढ़ोतरी हुई है।
लेकिन मंहगाई को मुद्दा बनाकर राजनीति साधने निकले राजनेताओं की आय में सौ से दो सौ फीसदी तक का इजाफा हुआ है। खासकर सांसदो की संपत्ति और सरकारी खजाने से मिलने वाली सुविधायें दुगुनी हुई हैं। जितने भी चेहरे बंद के दौरान सड़क पर नजर आये, उन सभी की संपत्ति करोड़ों में है। चाहे वह बीजेपी के अध्यक्ष नितिन गडकरी हों या फिर संसद के दोनों सदनों के विपक्ष के नेता। खुद शरद यादव की भी संपत्ति भी करीब डेढ़ करोड़ की है। जबकि शरद यादव जानते होंगे कि लोहिया की जब मौत हुई तो उनके घर का पता भी कोई नहीं था और जानकारी के लिये बैंक एकाउंट के जरिये पता खोजने की बात हुई तो यह जानकारी मिली की लोहिया का कोई एंकाउंट भी नहीं है। मीडिया को यकीनन यह कवर करना चाहिये था कि आम जनता से कैसे और क्यो नेताओ के सरोकार खत्म हो चले हैं, इसलिये बंद का मतलब सिर्फ राजनीतिक कवायद पर आ टिका है। करोड़पति नेताओं के सामने आम आदमी की औकात क्या है यह सरकार के ही प्रति व्यक्ति आय के आंकड़ों से समझा जा सकता है। क्योंकि बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, बंगाल समेत उत्तर-पूर्व के सभी सातों राज्यों में आज भी प्रति दिन की औसत कमाई 50 रुपये से 80 रुपये के बीच है। लेकिन सासंदो की लॉण्ड्री का औसत प्रतिदिन का खर्चा सौ रुपये से ज्यादा का है। और जो आम आदमी के टैक्स से दिये रुपये से खर्च होता है।
देश के आज जो हालात हैं उसमें न्यूज चैनलों को नेताओं के चमकते-दमकते कपड़ों पर कितने खर्च हुये - यह सवाल भी करना चाहिये। पूछना यह भी चाहिये कि सड़क पर आने से पहले आपने नाश्ता क्या किया और दूध या जूस किस फल का पिया? लेकिन मुश्किल है कि रिपोर्टर यह सवाल पूछने से इसलिये नहीं घबराता है कि नेता गुस्से में आ जायेगा, बल्कि उसका अपना पेट उसी तरह भरा हुआ है। लेकिन जनता से नेता यूँ ही नहीं कटा है। संसद ही आमजन से कैसे दूर है यह इनकी संपत्ती देखकर समझा जा सकता है। राज्यसभा के दो सौ सांसदो की संपत्ति को अगर सभी में बराबर-बराबर बांटा जाये, तो हर के हिस्से में बीस से पच्चीस करोड़ आयेगा और लोकसभा के 545 सांसदो की संपति अगर बराबर बांटी जाये तो हर के हिस्से में पांच से छः करोड़ आयेगा। यहाँ नेता सवाल खड़ा कर सकते हैं कि करोड़पति नेता को आंदोलन करने की इजाजत नहीं है क्या? यकीनन है। और सासंदो की तनख्वाह अस्सी हजार महिनावार हो जाये इस पर सभी सांसद एकजूट भी हैं। फिर भारत बंद को 74 के आंदोलन से जोड़ने की जो जल्दबाजी नेताओं ने दिखायी, वह भी कम हसीन नहीं है। जबकि सड़क पर उतरे सभी नेताओं के जहन में 74 की तस्वीर जरुर होगी। उस वक्त नेताओं की फेरहिस्त में जेबी कृपलानी, मधुलिमये, राजनारायण, कर्पूरी ठाकुर , चरण सिंह , जार्ज फर्नांडिस सरीखे नेता थे। जो खास तौर से संपत्ति और सुविधाओं को लेकर सचेत रहते थे। जिससे आम आदमी को यह महसूस ना हो कि नेता उससे कटा हुआ है। और यह संवाद अक्सर संसद के भीतर नेहरु से लेकर इंदिरा की रईसी पर उंगली उठाकर किया जाता था।लेकिन आम आदमी के बीच सड़क से राजनीति करते हुये सत्ता की अब की राजनीति ही जब मंहगाई जैसे मुद्दे पर ममता बनर्जी, लालू यादव , मायावती और राज ठाकरे को घर में कैद कर देती है, तो यह सवाल उठना जायज है कि भारत बंद राजनीतिक व्यायाम है और मंहगाई एक तफरी का मुद्दा। क्योकि चंद दिनो बाद संसद का मानसून सत्र शुरु होगा और यकीन जानिये सत्र की शुरुआत होते ही मंहगाई के मुद्दे पर संसद ठप कर दी जायेगी। और संसद की कैंटीन में कौड़ियों की कीमत में बिरयानी-चिकनकरी खाकर या एक रुपये में ग्रीन लीफ की शानदार चाय पीकर न्यूज चैनलों के कैमरों के सामने मंहगाई पर आंदोलन के गीत गाये जायेंगे और न्यूज चैनल के संपादक भी इसे ही खबर मानकर दिखायेंगे और न्यूज चैनल होने का धर्म निभायेंगे। इन हालात में तो शरद यादव को खुश होना चाहिये कि अगर राजनीति पटरी से उतरी है तो मीडिया भी पटरी से उतरा है और बीते छह साल में संपादक भी करोड़ों बनाकर मॉडल की मौत की गुत्थी सुलझाने से लेकर धौनी की शादी में खो जाते हैं। क्योंकि मीडिया पटरी पर लौटी तो मुश्किल राजनेताओं को होगी। आईये हम-आप दोनों प्रर्थना करें काश ऐसा हो जाये।
(लेखक के ब्लॉग से साभार)
Monday, April 12, 2010
Turnaround of India State Could Serve as a Model
By LYDIA POLGREEN
PATNA, India — For decades the sprawling state of Bihar, flat and scorching as a griddle, was something between a punch line and a cautionary tale, the exact opposite of the high-tech, rapidly growing, rising global power India has sought to become.
Criminals could count on the police for protection, not prosecution. Highwaymen ruled the shredded roads and kidnapping was one of the state’s most profitable businesses. Violence raged between Muslims and Hindus, between upper castes and lower castes. Its economy, peopled by impoverished subsistence farmers struggling through alternating floods and droughts, shriveled. Its government, led by politicians who used divisive identity politics to entrench their rule, was so corrupt that it required a newly coined phrase: the Jungle Raj. The name captured everything that was wrong with the old India — a combustible mix of crime, corruption and caste politics in a state crucible that stifled economic growth. So when Bihar announced earlier this year that it had notched an 11 percent average growth rate for the last five years, making it the second fastest-growing economy in the country, the news was greeted as a sign that even India’s most intractable corners of backwardness and misery were being transformed. “If even Bihar can change, then anywhere in India can change,” said Shaibal Gupta of the Asian Development Research Institute, an independent think tank here. “With good governance, good policy and law and order anything is possible.”
Bihar’s turnaround illustrates how a handful of seemingly small changes can yield big results in India’s most impoverished and badly governed regions. It also demonstrates how crucial the governments of India’s 28 states, many of which are larger than most countries, will be to India’s aspirations to superpower status. State governments are responsible for everything from schools to hospitals to policing to building and maintaining most roads. Failing states, especially large ones like Bihar and its troubled neighbor, Uttar Pradesh, could make or break those hopes. “Real change in India will come when we get the right kind of state level and local leadership — a forward-looking, modern and compassionate leadership that strengthens the foundations of our great republic,” Manmohan Singh, India’s Prime Minister, said in a speech to business leaders last November.
Bihar is a textbook case of how leadership determines development.
Lalu Prasad, a wily populist politician whose party peddles a message of lower caste empowerment, ran the state for 15 years from beneath a banyan tree. Under Mr. Prasad’s watch, criminal syndicates kidnapped, extorted and robbed with impunity, protected by political leaders, or in some cases led by politicians.
Mr. Prasad’s government did little to improve the daily lives of Biharis. Its already dismal roads disintegrated into impassable tracks. Its schools crumbled; teachers did not show up for work. Its health centers were left unstaffed. Bihar had some of the country’s sickest, poorest and shortest-lived people in India, a dismal catalog for a state that in its glory days, a few millennia ago, was home to one of South Asia’s most powerful empires and the place where the Buddha reached enlightenment.
Despite this record Mr. Prasad was re-elected once, and then when forced to step aside in a corruption scandal, he appointed his wife as his stand-in. She was also re-elected. But in 2005 the current chief minister, Nitish Kumar, himself from a lower caste, cobbled together an uneasy but successful alliance of the wealthy upper caste that Mr. Prasad had exiled from power and the very lowest of the Dalits, or untouchables. He promised to dismantle Mr. Prasad’s Jungle Raj.
“It was not a case of bad governance,” Mr. Kumar said in an interview. “Governance was completely absent from the state of Bihar.”
When Mr. Kumar took over, he found government offices filled with dusty files and Remington typewriters. It was as if most of the 20th century had passed Bihar by.
He tackled crime first. The order went down to the lowliest constable — the law was to be enforced, and criminals would be punished, no matter their political connections. Powerful men were arrested, many of them sitting members of Parliament and the state assembly. They were convicted quickly in fast-track courts. “That gave a clear signal that the law will prevail,” Mr. Kumar said.
Next came schools and hospitals. More than 2.5 million school-age children were not attending classes; by 2010 that number was reduced to fewer than 800,000. Clinics that had been seeing 30 patients a month because they had no medicine or doctors were staffed up and restocked. By 2006, the patient load had increased tenfold.
He loosened bureaucratic rules to move important infrastructure projects along more quickly. Before, projects costing little more than $50,000 required cabinet-level approval, and piled up on the desks of senior officials as the fiscal year ticked away. Mr. Kumar raised that limit to $4.4 million, and billions of dollars in infrastructure have been built.
This progress, and its limitations, is clearly on display in the villages of rural Bihar. Reaching the village of Pawna from the district capital, Ara, once took more than two hours, but today it is a 30-minute drive. Solar lights illuminate narrow lanes. The street market that used to shut promptly at sundown because of bandits now bustles late into the evening. The village has a new police station, more schools and new water pumps.
But Gulab Chand Ram, a landless Dalit farmer in Pawna, said the government had done little to tackle the problems of the very poorest, those with nowhere to go on the new roads and nothing to steal.
“It is paper talk,” he said of the reforms. “We farmers still lack land, we lack water.”
The first layer of reforms have produced spectacular results, but more complex problems like changing feudal land laws to give land to people like Mr. Ram will be much trickier, analysts said. And Bihar’s growth, of course, is relative, and given its dismal state until recently, the smallest gains have outsized impact. Almost no private investment has come into Bihar despite the improvements.
Gangotri Iron and Steel, a company manufacturing rebar to fuel the state’s construction boom, recently opened a plant in the town of Bihta on the outskirts of Patna. Umesh Sangarayam, the plant’s operations manager, said that while the law and order situation had improved, the absence of reliable electricity and the unpredictability of the state’s politics may be scaring investors away.
“If the wrong people come into power in Bihar, you could be finished,” he said.
Indeed, it is a testament to the enduring power of caste in India’s politics that Mr. Kumar, despite his achievements, will face a tough election battle later this year. His main opponent is likely to be Mr. Prasad, who dismisses Mr. Kumar’s success. “He cheated the people of Bihar,” he said, flanked by a phalanx of advisers who vigorously nodded at his every word and attended by a manservant whose only job appeared to be flicking mosquitoes away with a white towel. “I am committed to the poor people, the depressed people, the lower-caste people.”
It is a message that cannot be discounted, Mr. Gupta said. “Identity politics is strong,” he said. “We hope that voters will choose development over caste. But in Bihar one never knows.”
Monday, April 5, 2010
पाकिस्तान: तालिबान की एक और चेतावनी
पाकिस्तान की धरती को पाकिस्तान के ही पाले-पोसे आतंकवादियों ने सोमवार को फिर से रक्तरंजित किया.. पेशावर में अमेरिकी वाणिज्य दूतावास पर हमले का एक प्रयास हुआ और एक के बाद एक धमाके हुए.. जिसके बाद आधुनिक हथियारों से लैस छह आतंकियों ने दूतावास में घुसने का प्रयास किया.. जिसमें चार आतंकियों समेत छह लोग मारे गए। पाकिस्तानी तालिबान ने इस की जिम्मेदारी लेते हुए कहा कि यह अमेरिका द्वारा ड्रोन विमानों से किए जा रहे रोजाना हमलों का बदला लेने के लिए किया गया। इसके कुछ घंटों पहले दीर के तीमारगढ़ में हुए हमले में एक राजनीतिक पार्टी के 40 लोग मारे गए, जब एक आत्मघाती ने विस्फोटकों से अपने आप को उड़ा लिया। अवामी नेशनल पार्टी के नेता वहां एक जलसा कर रहे थे जिसमें उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत को खैबर-पख्तूनख्वा नाम दिए जाने की योजना का समर्थन करना था.. वहां कोई अमेरिकी या पाकिस्तानी सेना के लोग नहीं थे, जिनका तालिबान विरोध करते हैं.. वहां आम नागरिक थे… जो तालिबान के इस खूनी खेल का शिकार बने।
अपने अमेरिका-विरोध को ढाल बनाकर आम जनता का समर्थन मांगने वाले तालिबान के पास इसका जवाब नहीं होगा, पर इस क्षेत्र पर नजर रखने वाले लोग यह जानते हैं कि तालिबान सिर्फ अमेरिका विरोधी नहीं, बल्कि लोकतंत्र के भी विरोधी हैं.. जो भी उनकी विचारधारा के साथ नहीं, वे उन सबको खत्म करने की मंशा रखते हैं.. अमेरिका तो यहां से जाने की तैयारी का रोडमैप भी बना चुका है। तालिबान को हाल में ड्रोन हमलों से खासा नुकसान हुआ है... उत्तरी वजीरिस्तान में जहां वे पाकिस्तानी सेना से बेखौफ घूमते थे, वहां पिछले छह हफ्तों में 90 से ज्यादा आतंकी हवाई हमलों में मारे गए हैं..
बौखलाया तालिबान अपनी शक्ति के प्रदर्शन के लिए निकट भविष्य में पेशावर और दीर जैसे हमले दोहराएगा.. तालिबान उन सभी शक्तियों पर हमला करेगा, जो उसके कट्टर, पुरातनपंथी मत से अलग है.. सोमवार को उनका निशाना बनी पाकिस्तान की धर्मनिरपेक्ष पार्टी.. अवामी नेशनल पार्टी... जो सीमांत गांधी यानि खान अब्दुल गफ्फार खान के सिद्धांतों पर चलती है।
ये चेतावनी पाकिस्तान के उन राजनीतिक दलों के लिए भी है, जो तात्कालिक लाभ के लिए प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से तालिबान का समर्थन करते हैं। तालिबान ने जिस तरह के शासन की कल्पना कर रखी है उसमें दलीय राजनीति का कोई स्थान नहीं होगा।
अपने अमेरिका-विरोध को ढाल बनाकर आम जनता का समर्थन मांगने वाले तालिबान के पास इसका जवाब नहीं होगा, पर इस क्षेत्र पर नजर रखने वाले लोग यह जानते हैं कि तालिबान सिर्फ अमेरिका विरोधी नहीं, बल्कि लोकतंत्र के भी विरोधी हैं.. जो भी उनकी विचारधारा के साथ नहीं, वे उन सबको खत्म करने की मंशा रखते हैं.. अमेरिका तो यहां से जाने की तैयारी का रोडमैप भी बना चुका है। तालिबान को हाल में ड्रोन हमलों से खासा नुकसान हुआ है... उत्तरी वजीरिस्तान में जहां वे पाकिस्तानी सेना से बेखौफ घूमते थे, वहां पिछले छह हफ्तों में 90 से ज्यादा आतंकी हवाई हमलों में मारे गए हैं..
बौखलाया तालिबान अपनी शक्ति के प्रदर्शन के लिए निकट भविष्य में पेशावर और दीर जैसे हमले दोहराएगा.. तालिबान उन सभी शक्तियों पर हमला करेगा, जो उसके कट्टर, पुरातनपंथी मत से अलग है.. सोमवार को उनका निशाना बनी पाकिस्तान की धर्मनिरपेक्ष पार्टी.. अवामी नेशनल पार्टी... जो सीमांत गांधी यानि खान अब्दुल गफ्फार खान के सिद्धांतों पर चलती है।
ये चेतावनी पाकिस्तान के उन राजनीतिक दलों के लिए भी है, जो तात्कालिक लाभ के लिए प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से तालिबान का समर्थन करते हैं। तालिबान ने जिस तरह के शासन की कल्पना कर रखी है उसमें दलीय राजनीति का कोई स्थान नहीं होगा।
General Election 2010: battle lines are drawn - Telegraph
General Election 2010: battle lines are drawn - Telegraph: "We're fighting this election for the Great Ignored. Young, old, rich, poor, black, white, gay, straight. They start businesses, operate factories, teach our children, clean the streets, grow our food and keep us healthy – keep us safe. They work hard, pay their taxes, obey the law."
Wednesday, July 1, 2009
फिर गोरों ने माना बापू का लोहा
भारत की स्वंत्रतता और दुनिया को अंहिसा का संदेश देने वाले बापू चर्चा में हैं। जी हां, वही सत्य और अहिंसा जिसके बदौलत बापू ने दुनिया के कई देशों को आजादी का मूलमंत्र दिया था। अग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए मजबूर किया था। जो गोरे, बापू को फकीर कहा करते थे, आज वही बापू का गुणगान कर रहे हैं। चाहे वह लंदन के मेट्रो में गुंजने वाली बापू का विचार ही क्यों न हो। अभी हाल में ही लंदन के मेट्रो ने बापू के विचार ''ऑख के बदले ऑख मांगोगे तो सारी दुनिया अंधी हो जाएगी'' को शामिल किया है। अब यह विचार मेट्रो ट्रेन में सफर करने वाले सारे यात्रियों को सुनने को मिलेगा। ये उसी बापू के विचार हैं, जिन्हें कभी अंग्रेज चलती ट्रेन से फेंक दिया था। खैर, देर से ही सही आखिरकार बापू के विचार से पूरी दुनिया सहमत तो हुई। अभी हाल में ही अमेरिकी कांग्रेस के कुछ सदस्यों ने बापू की 140 वीं जयंती को मनाने के लिए एक प्रस्ताव प्रतिनिधि सभा में पेश किया है। जिसमें कहा गया है कि चूंकि बापू का नाम दुनियाभर में स्वतंत्रता और न्याय का प्रतीक है, लिहाज़ा उनकी जयंती यहां मनाई जानी चाहिए। कांग्रेस के छह सदस्यों ने भारत के राष्ट्रपिता की 140वीं जयंती मनाने के लिए प्रतिनिधि सभा में एक प्रस्ताव पेश किया है। जिसमें कहा गया है कि महात्मा गांधी का नेतृत्व में दूरदृष्टि थी। जिसकी वजह से विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका और विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के बीच मित्रता तेजी से मजबूत हुई।ये प्रस्ताव फ्लोरिडा की कांग्रेस सदस्य इलीना रॉस लेहटीनेन ने पेश किया है इसके अलावा ईड रॉयसे, जिम मैक्डेर्मट, जो विल्सन, गुस बिलिरकिस और डोन मैंजुलो ने भी इसपर सहमति जताई है। इस प्रस्ताव में कहा गया है कि भारत देश और इसकी लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्थापना में महात्मा गांधी की अद्वितीय और चिर स्थाई भूमिका है जो आने वाली पीढि़यों के लिए प्रेरणा देने वाली है। हालांकि बीते कुछ समयों में बापू भारत में महज किताबों और लेखों का विषय रह गए हैं, पर, बापू के सिद्धांत और विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। भारत की बदली तस्वीर में गांधीवाद भले कहीं दिखता न हो पर अमेरिका के सांसदों की पहल ये समझाने की कोशिश कर रही है कि गांधी ही आज की बदसूरत होती दुनिया की तस्वीर बदल सकते हैं। बशर्ते उनके विचारों को ज़मीन मिले।
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